2. केंद्र-राज्य संबंध और संवैधानिक नैतिकता

                 a.राज्यपाल की भूमिका: संवैधानिक संरक्षक या केंद्र के प्रतिनिधि?

                                        छात्रों के लिए टिप्पणी

लेख का संदर्भ:-

 हाल ही में तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें राज्यपाल पर कई विधेयकों को मंजूरी देने में देरी करने और विधायी प्रक्रिया को रोकने का आरोप लगाया गया। इसी प्रकार के टकराव पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब जैसे राज्यों में भी देखे गए हैं। यह बहस राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका, उनके विवेकाधीन अधिकारों और भारत के संविधान में निहित संवैधानिक नैतिकता की भावना पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करती है।

UPSC पेपर विषय अंतर्गत:-

  • जीएस पेपर II – भारतीय संविधान: संघवाद और केंद्र-राज्य संबंध
  • जीएस पेपर II – संवैधानिक पद: राज्यपाल की भूमिका और शक्तियाँ
  • जीएस पेपर II – संघीय ढांचे से संबंधित मुद्दे और चुनौतियाँ
  • जीएस पेपर II – शासन और संवैधानिकता

लेख के आयाम:-

  • राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति और भूमिका
  • निर्वाचित सरकारों और राज्यपालों के बीच टकराव
  • राज्यपाल की भूमिका पर न्यायालय के निर्णय
  • संवैधानिक नैतिकता का सिद्धांत
  • आयोगों और समितियों की सिफारिशें
  • सहकारी संघवाद को सशक्त करने के लिए सुधार

वर्तमान संदर्भ:-

अप्रैल 2025 में, तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर राज्यपाल पर संवैधानिक मानदंडों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया, यह आरोप राज्यपाल द्वारा विधानसभा द्वारा पारित लंबित विधेयकों को अनिश्चित काल तक मंजूरी न देने के संदर्भ में लगाया गया। यह घटना अलग-थलग नहीं है—इसी प्रकार के टकराव गैर-भाजपा शासित राज्यों जैसे केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल में भी हो रहे हैं। विधेयकों को मंजूरी देने में देरी, पर्याप्त कारण के बिना उन्हें लौटाना और प्रशासनिक मामलों में हस्तक्षेप करने जैसे मामलों ने संवैधानिक चिंताओं को जन्म दिया है। मुख्य प्रश्न यह है कि राज्यपाल संवैधानिक संरक्षक की भूमिका निभा रहे हैं या केंद्र के राजनीतिक एजेंट की, जिससे संविधान में निहित संघीय संतुलन को चुनौती मिल रही है।

विशेषताएँ:-

1. तमिलनाडु प्रकरण:-

  • जुलाई 2025 तक विधानसभा द्वारा पारित 12 विधेयक राज्यपाल के पास लंबित थे।
  • विधानसभा ने राज्यपाल पर “जनता की विधायी इच्छा को कमजोर करने” और संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन करने का आरोप लगाया।
  • राष्ट्रपति और केंद्र सरकार से हस्तक्षेप की अपील करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया।

2. अन्य चल रहे टकराव:-

  • पश्चिम बंगाल में, विधानसभा द्वारा पारित विधेयक लौटाए गए या रोके गए, जिससे शासन में देरी हुई।
  • केरल के मुख्यमंत्री ने 2023 में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया और राज्यपाल को विधेयकों पर समयबद्ध मंजूरी देने का निर्देश देने की मांग की।
  • पंजाब में 2023 में तब गतिरोध उत्पन्न हुआ जब राज्यपाल ने बजट सत्र बुलाने से इनकार कर दिया।

3. न्यायिक विकास:-

  • सर्वोच्च न्यायालय (2024): दोहराया कि अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता पर कार्य करना चाहिए, सिवाय कुछ विशेष परिस्थितियों के।
  • केरल राज्यपाल मामला (2023): सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल की विधेयकों पर निष्क्रियता को चुनौती देने वाली रिट याचिका स्वीकार की और केंद्र से विस्तृत संवैधानिक स्पष्टीकरण मांगा।

4. विधायी और कार्यपालिका गतिरोध:-

  • राज्यपाल द्वारा मंजूरी रोकना, निर्णयों में देरी करना और बार-बार स्पष्टीकरण मांगना, विधायी कार्यों में ठहराव ला रहा है।
  • इससे “जिम्मेदार सरकार” की अवधारणा कमजोर हुई है और इसे संवैधानिक विवेकाधिकार के दुरुपयोग के रूप में देखा जा रहा है।

व्याख्या:-

1. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 162 के अनुसार राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका क्या है?

राज्यपाल किसी राज्य के संवैधानिक प्रमुख होते हैं और उनकी भूमिका संघ स्तर पर राष्ट्रपति के समान होती है। संविधान के अनुच्छेद 153 से 162 राज्यपाल के पद से संबंधित हैं:

  • अनुच्छेद 153 – प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होना अनिवार्य है।
  • अनुच्छेद 154 – राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी, जिसे संविधान के अनुरूप प्रयोग किया जाएगा।
  • अनुच्छेद 155 व 156 – राज्यपाल की नियुक्ति व कार्यकाल का प्रावधान। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है और वे उनके इच्छानुसार पद पर बने रहते हैं।
  • अनुच्छेद 161 – राज्यपाल को क्षमा, दंड स्थगन, या दंड में कमी करने की शक्ति प्रदान करता है, कुछ मामलों में।

राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वे एक निष्पक्ष संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में कार्य करें, न कि राजनीतिक हितों के लिए।

2. अनुच्छेद 163 के अनुसार राज्यपाल की शक्तियां क्या हैं?

अनुच्छेद 163 के अनुसार, राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह और सहायता पर कार्य करना चाहिए, सिवाय उन मामलों में जहां संविधान विशेष रूप से उन्हें विवेकाधिकार देता है।विवेकाधिकार की शक्ति सीमित होती है और केवल अपवादस्वरूप परिस्थितियों में लागू होती है, जैसे:

  • 1. किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना (अनुच्छेद 200)
  • 2. ऐसे समय मुख्यमंत्री की नियुक्ति जब किसी दल को स्पष्ट बहुमत न हो
  • 3. अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना

इस अनुच्छेद की भावना यह है कि राज्यपाल स्वतंत्र रूप से तभी कार्य करें जब संविधान इसकी अनुमति दे।

3. अनुच्छेद 200 राज्य विधान के संदर्भ में राज्यपाल को क्या शक्तियां देता है?

जब राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयक राज्यपाल के पास आता है, तो अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के पास निम्न विकल्प होते हैं:

  • 1. मंजूरी देना – जिससे विधेयक कानून बन जाता है।
  • 2. मंजूरी न देना – यानी विधेयक को अस्वीकार करना।
  • 3. (मनी बिल को छोड़कर) विधेयक को पुनर्विचार हेतु लौटाना।
  • 4. विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना – खासकर जब वह केंद्र के कानून से टकराता हो या संवैधानिक प्रश्न खड़ा करता हो।

इन विकल्पों का दुरुपयोग—विशेषकर मंजूरी में जानबूझकर देरी करना या बिल्कुल कार्रवाई न करना—विधान प्रक्रिया को बाधित कर सकता है और निर्वाचित सरकार के जनादेश को कमजोर कर सकता है।

4. संवैधानिक नैतिकता का क्या अर्थ है और यह राज्यपाल के पद पर कैसे लागू होती है?

संवैधानिक नैतिकता का अर्थ केवल संवैधानिक प्रावधानों की शब्दशः व्याख्या नहीं, बल्कि उसमें निहित भावना और मूल्यों—लोकतंत्र, जवाबदेही, और संघवाद—का पालन करना है।

  • डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा था, “संविधान उतना ही अच्छा होगा जितना अच्छे लोग उसे लागू करेंगे।”
  • यह राज्यपाल से निष्पक्षता, संयम, और लोकतांत्रिक शासन के हित में कार्य करने की अपेक्षा करता है।
  • केंद्र के पक्षपाती एजेंट के रूप में काम करना, राज्य के विधानों में अनावश्यक अड़चन डालना, या नियमित निर्णयों में देरी करना संवैधानिक नैतिकता के विपरीत है।

अतः, राज्यपाल के पद को राजनीतिक निष्ठा नहीं, बल्कि संवैधानिक आचरण और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व द्वारा संचालित होना चाहिए।

5. राज्यपाल की भूमिका और शक्तियों को परिभाषित करने वाले प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के निर्णय कौन से हैं?

कई महत्वपूर्ण निर्णयों ने राज्यपाल के पद की संवैधानिक सीमाएं स्पष्ट की हैं:

शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974):-

  • 1. राज्यपाल एक औपचारिक प्रमुख हैं जिन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता है।
  • 2. विवेकाधिकार केवल असाधारण परिस्थितियों में लागू होता है।

नाबम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष (2016):-

  • 1. विधानसभा को बुलाना या भंग करना मंत्रिपरिषद की सलाह पर आधारित होना चाहिए, न कि राज्यपाल के विवेक पर।
  • 2. संवैधानिक पदाधिकारी अपनी सीमाओं के भीतर ही कार्य करें।

रमेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2006):-

  • 1. बिहार विधानसभा को भंग करने की राज्यपाल की मनमानी सिफारिश की आलोचना की गई।
  • 2. विवेकाधिकार के दुरुपयोग पर न्यायिक जांच और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को नुकसान की चेतावनी दी।

ये निर्णय बताते हैं कि राज्यपाल का कार्य संविधान का समर्थन करना है, न कि समानांतर सत्ता केंद्र बनना।

6. राज्यपाल के पद में सुधार के लिए विभिन्न आयोगों ने क्या सिफारिशें दी हैं?

कई आयोगों ने इस पद को राजनीतिकरण से मुक्त करने और संघीय संतुलन बनाए रखने के सुझाव दिए हैं:

सरकारिया आयोग (1988):-

  • 1. राज्यपाल एक प्रतिष्ठित व्यक्ति होना चाहिए, जो सक्रिय राजनीति में शामिल न हो।
  • 2. नियुक्ति राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श कर की जानी चाहिए।
  • 3. निष्पक्षता और संयम पर जोर 

पुंछी आयोग (2010):-

  • 1. अनुच्छेद 200 के तहत विधेयक पर कार्रवाई के लिए समय सीमा (अधिमानतः 30 दिन) तय करने की सिफारिश।
  • 2. विवेकाधिकार की सीमा को और संकीर्ण करने का सुझाव।

संविधान के कार्यन्वयन की समीक्षा हेतु राष्ट्रीय आयोग (NCRWC):-

  • 1. नियुक्ति के लिए व्यापक परामर्श तंत्र (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, और विधानसभा अध्यक्ष) का सुझाव।
  • 2. स्वायत्तता बनाए रखने के लिए निश्चित कार्यकाल और स्पष्ट हटाने के आधार तय करने की सिफारिश।

ये सिफारिशें राज्यपाल के पद की गरिमा बनाए रखने और संघीय टकराव को रोकने के लिए आज भी प्रासंगिक हैं।

निष्कर्ष:-

राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच बढ़ता तनाव भारत की संघीय संरचना के भीतर एक गहरे टकराव को दर्शाता है। जहाँ राज्यपाल को केंद्र और राज्य के बीच एक संवैधानिक कड़ी के रूप में परिकल्पित किया गया है, वहीं इस भूमिका का निर्वहन संयम, निष्पक्षता और संवैधानिक नैतिकता के पूर्ण पालन के साथ होना चाहिए। राज्यपाल के पद का बढ़ता राजनीतिकरण न केवल जनविश्वास को कमजोर करता है बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी विकृत करता है। यह आवश्यक है कि सभी संवैधानिक पदाधिकारी दलगत निष्ठा से ऊपर उठकर संविधान की पवित्रता को बनाए रखें, अन्यथा संघीय भारत की मूल अवधारणा ही खतरे में पड़ सकती है।

  • समय-सीमा का संहिताकरण: संसद अनुच्छेद 200 में संशोधन कर राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए एक निश्चित समय सीमा (जैसे 30 दिन) तय करने पर विचार कर सकती है।
  • पारदर्शी नियुक्ति तंत्र: राज्यपाल की नियुक्ति में केंद्र और राज्य के बीच परामर्श शामिल होना चाहिए, जैसा कि सरकारिया और पुनच्ची आयोग ने सुझाव दिया है।
  • न्यायिक जवाबदेही: उच्चतम न्यायालय ऐसे दिशा-निर्देश जारी कर सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो कि संवैधानिक दायित्वों का उल्लंघन न हो।
  • संवैधानिक संशोधन (यदि आवश्यक हो): राज्यपाल की शक्तियों के सटीक दायरे को स्पष्ट करने और किसी भी अस्पष्टता को दूर करने के लिए।
  • सहकारी संघवाद को बढ़ावा: लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण की भावना के अनुरूप केंद्र और राज्यों के बीच संवाद और आपसी सम्मान को प्रोत्साहित करना।

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