छात्रों के लिए नोट्स
आलेख की पृष्ठभूमि:-
मार्च 2025 में एक्स कॉर्प (पूर्व में ट्विटर) ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की। इसमें भारत सरकार द्वारा सोशल मीडिया इंटरमीडियरीज़ को अनिवार्य रूप से सहयोग पोर्टल पर पंजीकृत करने की बाध्यता को चुनौती दी गई है। यह पोर्टल सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 79(3)(b) के तहत स्वतः ही टेकडाउन नोटिस भेजता है।
- एक्स का तर्क है कि यह पोर्टल स्थापित धारा 69A के अवरोधक (blocking) प्रावधानों को दरकिनार करता है, जिसकी कोई वैधानिक नींव नहीं है और जो न्यायिक निगरानी से बच निकलता है। इसका परिणाम है अस्पष्ट सेंसरशिप।
यूपीएससी जीएस पेपर से संबंध:-
- जीएस पेपर II : डिजिटल गवर्नेंस, संवैधानिक कानून (अनुच्छेद 14 और 19), वैधानिक व्याख्या, प्रशासनिक ढांचा।
- जीएस पेपर III : साइबर कानून, प्रौद्योगिकी विनियमन, इंटरमीडियरी दायित्व।
आलेख के आयाम:-
- कानूनी ढांचा
- संवैधानिक कानून
- प्रशासन एवं शासन की रूपरेखा
- इंटरमीडियरी दायित्व एवं प्लेटफ़ॉर्म अधिकार
- लोक नीति एवं मीडिया स्वतंत्रता
वर्तमान संदर्भ:-
अंतिम दलीलें पूरी हो चुकी हैं और कर्नाटक उच्च न्यायालय ने 29–30 जुलाई 2025 को निर्णय सुरक्षित रखा।
- एक्स का दावा है कि टेकडाउन नोटिस धारा 79(3)(b) के तहत कार्यपालिका की मर्ज़ी से जारी होते हैं, जिससे धारा 69A की न्यायिक सुरक्षा दरकिनार होती है।
- सरकार का तर्क है कि सहयोग पोर्टल केवल एक वैध, परामर्शात्मक सूचना उपकरण है, जो त्वरित कार्रवाई हेतु आवश्यक है। सरकार ने यह भी कहा कि एक्स एक विदेशी कंपनी है, इसलिए उसे अनुच्छेद 14 और 19 का संरक्षण नहीं मिल सकता।
समाचार की विशेषताएँ:-
- सशक्त रूपक :-
- एक्स ने सहयोग पोर्टल को “भेड़ की खाल में भेड़िया” बताया, जो धोखाधड़ीपूर्ण कार्यपालिका अतिक्रमण को दर्शाता है।
- वैधानिक तनाव :-
- विवाद यह है कि क्या धारा 79 केवल सेफ़ हार्बर प्रावधान है या इसे सेंसरशिप का आधार भी बनाया जा सकता है।
- उद्योग का हस्तक्षेप :-
- डिजीपब (92 डिजिटल मीडिया संस्थान) ने हस्तक्षेप करते हुए पत्रकारिता स्वतंत्रता पर खतरे को रेखांकित किया।
- नीतिगत दांव-पेंच :-
- विशेषज्ञ मानते हैं कि यह मामला विकासशील देशों में डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म नियमन के लिए वैश्विक मिसाल बन सकता है।
व्याख्यात्मक प्रश्न:-
प्रश्न 1. सहयोग पोर्टल क्या है और यह विवादास्पद क्यों है?
उत्तर : सहयोग पोर्टल गृह मंत्रालय द्वारा, MeitY की मदद से बनाया गया एक प्रशासनिक ऑनलाइन मंच है। यह न केवल पुलिस बल्कि विभिन्न सरकारी अधिकारियों को भी धारा 79(3)(b) के अंतर्गत इंटरमीडियरीज़ को टेकडाउन नोटिस भेजने की अनुमति देता है। सरकार कहती है कि यह प्रवर्तन को सरल बनाता है। जबकि एक्स का दावा है कि इसकी कोई वैधानिक आधार नहीं है, यह न्यायिक निगरानी से बाहर काम करता है और बिना due process के अप्रत्यक्ष सेंसरशिप लागू करता है।
प्रश्न 2. एक्स क्यों कहता है कि सामग्री अवरोधन के लिए केवल धारा 69A का ही प्रयोग होना चाहिए?
उत्तर : धारा 69A में एक संरचित प्रक्रिया है—लिखित कारण, अंतर-मंत्रालयी समीक्षा, पक्षकार को उपस्थित होने का अवसर और न्यायिक निगरानी। श्रेया सिंघल मामले में इसे सर्वोच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा था। एक्स का कहना है कि धारा 79(3)(b) का उपयोग इन सभी सुरक्षा उपायों को दरकिनार करता है और कार्यपालिका आधारित अपारदर्शी सेंसरशिप को बढ़ावा देता है।
प्रश्न 3. एक्स का दावा है कि सहयोग पोर्टल कौन से संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करता है?
उत्तर : एक्स का तर्क है कि यह पोर्टल अनुच्छेद 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है। इससे कार्यपालिका को अस्पष्ट रूप से सामग्री हटाने की शक्ति मिल जाती है। प्लेटफ़ॉर्म्स को मजबूरी में पालन करना पड़ता है, वरना वे सेफ़ हार्बर खो सकते हैं, जिसका असर डिजिटल विमर्श और मीडिया स्वतंत्रता पर पड़ता है।
प्रश्न 4. सरकार ने सहयोग पोर्टल का बचाव कैसे किया है?
उत्तर : सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने दलील दी कि सहयोग पोर्टल केवल एक सूचना तंत्र है, कोई वैधानिक सेंसरशिप साधन नहीं। सामग्री हटाना प्लेटफ़ॉर्म के विवेक पर ही निर्भर है। सरकार ने यह भी कहा कि धारा 79 सशर्त सेफ़ हार्बर के रूप में सही ढंग से व्याख्यायित है और एक्स, एक विदेशी इकाई होने के नाते, अनुच्छेद 14 व 19 का दावा नहीं कर सकता।
निष्कर्ष:-
सहयोग बनाम एक्स कॉर्प मामला डिजिटल नियमन में कार्यपालिका के प्रशासनिक औज़ारों और संवैधानिक रूप से अनिवार्य due process के बीच सीमाओं को परिभाषित करने वाला है। यदि निर्णय एक्स के पक्ष में जाता है, तो यह न्यायिक निगरानी, पारदर्शिता और प्रेस स्वतंत्रता को मज़बूत करेगा।
- वहीं यदि सरकार जीतती है, तो यह तेज़ डिजिटल गवर्नेंस तंत्र को मान्यता देगा, लेकिन साथ ही संवैधानिक सुरक्षा उपायों के ह्रास और असहमति के दमन की चिंताओं को भी जन्म देगा। कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय (30 जुलाई 2025 को सुरक्षित) अब अत्यधिक प्रतीक्षित है, और इसके प्रभाव भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म नियमन पर भी पड़ सकते हैं।