परिचय:
1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण विद्रोह था, मुख्य रूप से उत्तरी और मध्य भारत में। यह 1856-57 में पैटर्न 1853 एनफील्ड राइफल-मस्केट के परिचय से तत्काल शुरू हुआ था, जिसके लिए ग्रीस लगे कागज़ के कारतूस के सिरे को दांतों से काटना पड़ता था। यह ग्रीस कथित तौर पर गाय की चर्बी और सूअर की चर्बी से बनी थी, जिसने हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई। धार्मिक पहचान के इस कथित अपमान के साथ, व्यपगत के सिद्धांत और अवध के विलय जैसे राजनीतिक कारण, विभिन्न भू-राजस्व प्रणालियों के माध्यम से आर्थिक शोषण, और धार्मिक रूपांतरण के सामाजिक भय ने इस व्यापक विद्रोह को हवा दी।
तत्काल कारण: एनफील्ड राइफल कारतूस का मुद्दा
- राइफल का परिचय: पैटर्न 1853 एनफील्ड राइफल-मस्केट का परिचय दिया गया था। भारतीय सैनिकों के लिए इसे 1856-57 में पेश किया गया था।
- कारतूस की व्यवस्था: राइफल में बारूद भरने के लिए ग्रीस लगे कागज़ के कारतूस के सिरे को दांतों से काटना पड़ता था।
- ग्रीस की संरचना: बताया गया है कि ग्रीस गाय की चर्बी (हिंदुओं के लिए आपत्तिजनक) और सूअर की चर्बी (मुसलमानों के लिए आपत्तिजनक) से बनी थी। कारतूस को दांतों से काटने का कार्य सीधे तौर पर हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों के धार्मिक आहार कानूनों का उल्लंघन करता था।
- इरादा और धार्मिक संवेदनशीलता: ग्रीस के मुद्दे को एक दुर्घटना नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान को प्रदूषित करने के deliberate प्रयास के रूप में देखा गया था। यह मुद्दा बढ़ती आशंकाओं के बीच आया था:
- जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट एक्ट, 1856, जिसके तहत सिपाहियों को विदेशों में सेवा करने की आवश्यकता थी (हिंदू मान्यताओं के खिलाफ)।
- ईसाई मिशनरी गतिविधि, जिसे ब्रिटिश अधिकारियों और सैन्य पादरियों का समर्थन प्राप्त था।
- सिपाहियों ने इन घटनाक्रमों को अपने धर्म, रीति-रिवाजों और जाति की पवित्रता पर हमला माना।
- कारतूस के मुद्दे ने सामूहिक अवज्ञा को जन्म दिया क्योंकि इसने गहरी धार्मिक मान्यताओं का अपमान किया, न कि केवल logistical समस्याओं के कारण।
- भारतीय धर्मों को नष्ट करने की ब्रिटिश साजिश में विश्वास ने हिंदू और मुस्लिम सिपाहियों को एकजुट किया।
- कारतूस को दांतों से काटने की प्रतीकात्मक क्रिया प्रतिरोध का प्रतीक बन गई।
घटनाओं का कालक्रम
तिथि | घटना |
29 मार्च 1857 | मंगल पांडे ने बैरकपुर में अपने ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला किया। |
8 अप्रैल 1857 | मंगल पांडे को फांसी दे दी गई। |
24 अप्रैल 1857 | मेरठ में तीसरी नेटिव कैवलरी के 85 सिपाहियों ने कारतूस लेने से इनकार कर दिया। |
9 मई 1857 | 85 सिपाहियों को कोर्ट-मार्शल किया गया और 10 साल की सजा सुनाई गई। |
10 मई 1857 | मेरठ के सिपाहियों ने विद्रोह किया, अपने साथियों को रिहा किया, ब्रिटिश अधिकारियों को मार डाला और दिल्ली की ओर कूच किया। |
11 मई 1857 | सिपाही दिल्ली पहुँचे, गैरीसन उनके साथ शामिल हो गया, और बहादुर शाह ज़फर को सम्राट घोषित किया गया। |
मुख्य स्थिर तथ्य
- राइफल का नाम: पैटर्न 1853 एनफील्ड राइफल-मस्केट
- कारतूसों की प्रकृति: ग्रीस लगे कागज़ के कारतूस; ग्रीस कथित तौर पर गाय/सूअर की चर्बी से बनी थी
- विद्रोह करने वाला पहला सिपाही: मंगल पांडे (बैरकपुर, 29 मार्च 1857)
- सामूहिक इनकार का स्थान: मेरठ (तीसरी नेटिव कैवलरी, 24 अप्रैल 1857)
- इनकार करने वाले सिपाहियों की संख्या: 85
- मेरठ में विद्रोह की तारीख: 10 मई 1857
- प्रभावित धार्मिक समूह: हिंदू और मुस्लिम
- राजनीतिक परिणाम: दिल्ली में बहादुर शाह ज़फर को सम्राट घोषित किया गया
नोट: कारतूस का मुद्दा सैन्य आपूर्ति में कोई अलग त्रुटि नहीं थी; यह धार्मिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और सैन्य शिकायतों की एक श्रृंखला में अंतिम उत्प्रेरक बन गया। मंगल पांडे के प्रतिरोध और मेरठ के विद्रोह से शुरू होने वाली घटनाओं का क्रम इस मुद्दे की operational centrality को विद्रोह के लिए सिद्ध करता है।
राजनीतिक कारण: व्यपगत का सिद्धांत, अवध का विलय
1857 के विद्रोह के राजनीतिक कारण
- प्रमुख कारक:
- व्यपगत का सिद्धांत
- अवध का विलय (1856)
व्यपगत का सिद्धांत
- परिभाषा और नीति: लॉर्ड डलहौजी, भारत के गवर्नर-जनरल (1848-1856) द्वारा पेश किया गया। इसमें कहा गया था कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की अधीनता वाला कोई भी रियासत, यदि शासक की मृत्यु बिना किसी प्राकृतिक (जैविक) पुरुष उत्तराधिकारी के हो जाती है, तो उसे annexed कर लिया जाएगा। गोद लेने के अधिकार को मान्यता नहीं दी गई थी, जिसने भारतीय रीति-रिवाजों और हिंदू कानून का उल्लंघन किया था।
- सिद्धांत के तहत विलय किए गए क्षेत्र:
राज्य | विलय का वर्ष | कारण |
सतारा | 1848 | कोई प्राकृतिक उत्तराधिकारी नहीं |
जैतपुर | 1849 | कोई जैविक उत्तराधिकारी नहीं |
संबलपुर | 1850 | उत्तराधिकार विवाद |
झांसी | 1854 | रानी लक्ष्मीबाई के गोद लिए पुत्र को अस्वीकार कर दिया गया |
नागपुर | 1854 | गोद लिए उत्तराधिकारी को अंग्रेजों ने स्वीकार नहीं किया |
* (सभी विलय लोकप्रिय सहमति के बिना और पारंपरिक अधिकारों के उल्लंघन में किए गए थे, जिससे शासकों और उनके विषयों के बीच शिकायतें पैदा हुईं।)
- प्रभाव:
- विस्थापित शासक (उदाहरण के लिए, रानी लक्ष्मीबाई) प्रमुख विद्रोही नेता बन गए।
- भारतीय अभिजात वर्ग द्वारा ब्रिटिश शासन की वैधता पर सवाल उठाया गया था।
- राजनीतिक स्वायत्तता के क्षरण ने राजकुमारों, अभिजात वर्ग और उनके आश्रितों के बीच गहरी नाराजगी पैदा की।
अवध (औध) का विलय – 1856
- पृष्ठभूमि: व्यपगत के सिद्धांत के माध्यम से विलय के विपरीत, अवध को “कुशासन” के तहत विलय किया गया था, हालांकि नवाब अंग्रेजों के प्रति वफादार था। लॉर्ड डलहौजी द्वारा विलय का आदेश दिया गया था, जिसे फरवरी 1856 में लागू किया गया था। नवाब वाजिद अली शाह को कलकत्ता निर्वासित कर दिया गया था, और उनके राज्य का विलय कर लिया गया था।
- विलय के आधार: ब्रिटिश ने अवध पर आरोप लगाया:
- प्रशासन में भ्रष्टाचार
- कानूनहीनता और खराब शासन
- नागरिकों की सुरक्षा और राज्य मामलों के प्रबंधन में विफलता
- इसमें कोई उत्तराधिकारी या उत्तराधिकार का मुद्दा शामिल नहीं था, जिससे यह विशुद्ध रूप से एक राजनीतिक और रणनीतिक अधिग्रहण बन गया।
- रणनीतिक उद्देश्य: अवध को “उत्तरी भारत का अन्न भंडार” माना जाता था और इसमें उपजाऊ भूमि, समृद्ध राजस्व, और एक मजबूत सिपाही आधार था। ब्रिटिश इसके संसाधनों और सेना भर्ती पूल पर सीधा नियंत्रण चाहते थे।
- अवध के विलय के प्रभाव:
- राजघरानों पर:
- नवाब के पद से हटाए जाने से मुस्लिम अभिजात वर्ग को नुकसान पहुंचा।
- सांस्कृतिक केंद्र (लखनऊ) में गिरावट आई।
- कवियों, संगीतकारों और विद्वानों का शाही संरक्षण ध्वस्त हो गया।
- सिपाहियों पर:
- अवध बंगाल सेना के सिपाहियों के लिए एक प्रमुख भर्ती क्षेत्र था।
- सिपाहियों ने व्यक्तिगत रूप से प्रभावित महसूस किया:
- विलय ने उनके क्षेत्रीय गौरव का अपमान किया।
- उनके रिश्तेदारों को बढ़ा हुआ भू-राजस्व, नौकरियों का नुकसान और बेदखली का सामना करना पड़ा।
- जनसंख्या पर:
- तालुकदारों (जमींदार अभिजात वर्ग) को विस्थापित किया गया या उन पर भारी कर लगाया गया।
- किसानों को ब्रिटिश राजस्व निष्कर्षण के अधीन किया गया।
- सभी वर्गों में विश्वासघात और अपमान की भावना फैल गई।
- अवध के विलय ने 1857 के विद्रोह में इस क्षेत्र से नागरिकों और सिपाहियों की भारी भागीदारी में सीधे योगदान दिया।
मुख्य स्थिर तथ्य
पहलू | विवरण |
सिद्धांत किसके द्वारा पेश किया गया | लॉर्ड डलहौजी |
डलहौजी के शासनकाल की अवधि | 1848-1856 |
सिद्धांत के माध्यम से विलय किए गए राज्य | सतारा, झांसी, नागपुर, जैतपुर, संबलपुर |
अवध के विलय का वर्ष | 1856 |
अवध का नवाब (विलय के समय) | वाजिद अली शाह |
विलय का आधार | कुशासन (व्यपगत का सिद्धांत नहीं) |
परिणाम | 1857 में प्रमुख सिपाही और नागरिक समर्थन |
नोट: “अवध का विलय केवल एक रणनीतिक गलत गणना ही नहीं, बल्कि एक राजनीतिक भूल भी साबित हुआ—इसने जमींदार अभिजात वर्ग और सिपाही समुदाय दोनों को अलग-थलग कर दिया, जिससे वे ब्रिटिश शासन के कट्टर विरोधी बन गए।”
आर्थिक कारण: भू-राजस्व, असंतुष्ट सिपाही
1857 के विद्रोह के आर्थिक कारण
- केंद्र बिंदु:
- भू-राजस्व प्रणालियाँ और किसान शोषण
- सिपाहियों का असंतोष (सैन्य आर्थिक शिकायतें)
भू-राजस्व प्रणालियाँ और किसान शोषण
- स्थायी बंदोबस्त (शुरू किया गया: 1793, बंगाल प्रेसीडेंसी)
- जमींदारों को भूमि पर स्वामित्व अधिकार दिए गए; किसानों को tenant-at-will बनाया गया।
- कंपनी ने उच्च राजस्व मांग तय की, जो अक्सर जमींदार जितना एकत्र कर सकते थे उससे अधिक थी।
- भुगतान न करने पर जागीरें नीलाम कर दी गईं।
- किसानों को बेदखली का सामना करना पड़ा और भूमि पर कोई कानूनी अधिकार नहीं था।
- रैयतवाड़ी बंदोबस्त (शुरू किया गया: मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी)
- किसानों (रैयतों) ने भू-राजस्व के लिए सीधे अंग्रेजों से व्यवहार किया।
- उच्च और inflexible राजस्व मांगें।
- फसल खराब होने की स्थिति में, रैयतों को साहूकारों से अत्यधिक ब्याज दरों पर ऋण लेने के लिए मजबूर किया गया। इससे chronic indebtedness और भूमि अलगाव हुआ।
- महालवाड़ी व्यवस्था (शुरू किया गया: उत्तर-पश्चिमी प्रांत, पंजाब के कुछ हिस्से)
- राजस्व पूरे गांव (महाल) के स्तर पर तय किया गया था।
- प्रत्येक घर पूरी राशि के लिए उत्तरदायी था, जिससे सांप्रदायिक दबाव पड़ा।
- राजस्व पुनर्मूल्यांकन ने समय-समय पर बोझ बढ़ाया।
- किसानों पर प्रभाव:
- सभी भूमि बंदोबस्त अत्यधिक कराधान का कारण बने।
- सिंचाई, इनपुट, या अकाल के दौरान राहत में कोई निवेश नहीं।
- साहूकार गिरवी रखी गई भूमि पर कब्जा करके जमींदार बन गए।
- विद्रोह के दौरान रिकॉर्ड, राजस्व कार्यालयों और खाता बही पर हमला किया गया।
- कई किसानों ने इस शोषणकारी व्यवस्था का विरोध करने के लिए विद्रोह का समर्थन किया।
सिपाहियों का असंतोष: आर्थिक कारक
- वेतन संरचना और सेवा शर्तें:
- भारतीय सिपाहियों को प्रति माह 7-9 रुपये मिलते थे।
- अपने वेतन से उन्हें भुगतान करना पड़ता था:
- वर्दी
- भोजन
- व्यक्तिगत सामान का परिवहन
- इसके विपरीत, ब्रिटिश सैनिकों के इन खर्चों को कवर किया जाता था।
- एक भारतीय सिपाही की लागत ईस्ट इंडिया कंपनी को एक ब्रिटिश सैनिक की लागत का एक तिहाई थी।
- पदोन्नति और स्थिति का अभाव:
- भारतीय सिपाहियों को सूबेदार के पद तक ही सीमित रखा गया था।
- ब्रिटिश अधिकारी, यहां तक कि जूनियर रंगरूट भी, superior command positions रखते थे।
- सैन्य संरचना में racial hierarchy निहित थी।
- कटौतियाँ और भत्ते:
- बट्टा (फील्ड भत्ता) अक्सर मनमाने ढंग से मना कर दिया जाता था या कम कर दिया जाता था।
- लंबे वर्षों की सेवा के लिए कोई पेंशन या इनाम नहीं।
- ग्रामीण संकट का प्रभाव:
- अधिकांश सिपाही कृषि पृष्ठभूमि से आते थे, विशेष रूप से अवध, बिहार और उत्तर-पश्चिमी प्रांतों से।
- उनके परिवार बढ़े हुए कराधान और भूमि के विस्थापन के कारण पीड़ित थे।
- उनकी सैन्य आय उनके कर्जदार ग्रामीण परिवारों का समर्थन करने के लिए अपर्याप्त थी।
सिपाही आर्थिक शिकायतों का सारांश
शिकायत | स्पष्टीकरण |
कम वेतन | रु. 7-9/माह; स्वयं वित्तपोषित आवश्यक वस्तुएँ |
नस्लीय भेदभाव | सूबेदार से आगे कोई पदोन्नति नहीं |
जीवन यापन की लागत | भोजन, वर्दी, परिवहन का उच्च व्यय सिपाही वहन करता था |
किसान संकट का प्रभाव | अधिकांश सिपाहियों के परिवार राजस्व दबाव के शिकार थे |
मुख्य स्थिर तथ्य
विशेषता | विवरण |
स्थायी बंदोबस्त का परिचय | 1793, बंगाल प्रेसीडेंसी |
रैयतवाड़ी बंदोबस्त का परिचय | मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी |
महालवाड़ी बंदोबस्त का परिचय | उत्तर-पश्चिमी प्रांत |
विशिष्ट सिपाही का वेतन | रु. 7–9 प्रति माह |
भारतीय सिपाहियों के लिए अधिकतम रैंक | सूबेदार |
सेना व्यय अनुपात | 1 भारतीय सिपाही = 1/3 ब्रिटिश सैनिक लागत में |
सिपाही भर्ती आधार | अवध, बिहार, उत्तर-पश्चिमी प्रांत |
नोट: किसानों और सिपाहियों दोनों का आर्थिक असंतोष आपस में जुड़ा हुआ था। वही दमनकारी भू-राजस्व नीतियां जिन्होंने ग्रामीण परिवारों को दिवालिया कर दिया, उनसे आने वाले सिपाहियों के मनोबल को भी कमजोर कर दिया। सिपाही की तलवार किसान के प्रतिशोध का हथियार बन गई, जिसका निशाना ब्रिटिश राजस्व कार्यालयों और सैन्य प्रतिष्ठानों पर था।
सामाजिक कारण: धार्मिक रूपांतरण का भय, भेदभाव
1857 के विद्रोह के सामाजिक कारण: धार्मिक रूपांतरण और भेदभाव का भय
- ब्रिटिश राज्य द्वारा धार्मिक हस्तक्षेप:
- ईस्ट इंडिया कंपनी, विशेष रूप से 1813 के चार्टर अधिनियम के बाद, ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतंत्र रूप से काम करने की अनुमति दी। इस राज्य-प्रायोजित प्रचार ने व्यापक संदेह पैदा किया।
- ब्रिटिश प्रशासन:
- सेना रेजिमेंटों और नागरिक प्रतिष्ठानों में ईसाई पादरियों को वित्त पोषित किया।
- सैन्य प्रशिक्षण और deployments के दौरान सिपाहियों के बीच भी मिशनरी प्रचार की अनुमति दी।
- मिशनरियों को पुलिस सुरक्षा प्रदान की, इस विश्वास को पुष्ट किया कि ईसाई धर्म में रूपांतरण एक औपनिवेशिक उद्देश्य था।
- सैन्य सुधार और धार्मिक अपराध:
- सिपाही, मुख्य रूप से उच्च जाति के हिंदू और मुस्लिम, खुद को लक्षित महसूस करते थे:
- 1856 में, जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट एक्ट में नए रंगरूटों को आदेश दिए जाने पर विदेशों में सेवा करने की आवश्यकता थी। इसने रूढ़िवादी हिंदू मानदंडों का उल्लंघन किया, जहां ‘काला पानी’ (black waters) पार करने का मतलब जाति की पवित्रता का नुकसान था।
- सेना में जाति-चिह्न और दाढ़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिससे हिंदू और मुस्लिम दोनों की धार्मिक पहचान का सीधा अपमान हुआ।
- छावनियों में ईसाई प्रार्थनाएं और गतिविधियां शुरू की गईं, जिससे पारंपरिक प्रथाएं कमजोर हुईं।
- ग्रीस कारतूस की घटना – तत्काल कारण:
- नई शुरू की गई एनफील्ड राइफल के कारतूस, जो गोमांस और सूअर की चर्बी से लेपित थे, को लोड करने से पहले दांतों से काटना पड़ता था।
- हिंदुओं को गाय की चर्बी (पवित्र जानवर) के उपयोग के कारण ठेस पहुंची।
- मुसलमानों को सूअर की चर्बी (निषिद्ध जानवर) के उपयोग के कारण ठेस पहुंची।
- इस घटना ने धार्मिक उल्लंघन के डर की पुष्टि तो की ही, बल्कि इसे भारतीय धर्मों को अपवित्र करने और सिपाहियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की ब्रिटिश योजना के deliberate सबूत के रूप में भी देखा गया।
- सिपाही विद्रोह बैरकपुर (मंगल पांडे घटना) में शुरू हुआ और मेरठ विद्रोह के बाद तेजी से फैल गया।
- धार्मिक खतरे की व्यापक नागरिक धारणा:
- कई क्षेत्रों में, विशेष रूप से आदिवासी और ग्रामीण आबादी के बीच, ईसाई धर्म में रूपांतरण की सूचना मिली थी।
- हिंदू और मुस्लिम धर्मगुरु (पंडित और मौलवी), जिन्हें एक बार रियासती दरबारों में राज्य का समर्थन प्राप्त था, ब्रिटिश शासन के तहत अपना प्रभाव खो दिया और अपने पारंपरिक अधिकार के annihilation का डर था।
- सती उन्मूलन (1829) और विधवा पुनर्विवाह को वैध बनाना (1856) जैसे धार्मिक सुधार कानून, हालांकि प्रगतिशील थे, पारंपरिकवादियों द्वारा हिंदू रीति-रिवाजों पर हमले के रूप में देखे गए थे।
- सिपाही भावना पर प्रभाव:
- ब्रिटिश पहले से ही अलोकप्रिय थे:
- भारतीय सैनिकों के खराब वेतन और असमान व्यवहार के कारण।
- सूबेदार के पद से आगे नहीं बढ़ पाने के कारण, जबकि ब्रिटिश अधिकारी—यहां तक कि नए रंगरूट—को कमांडर बनाया जाता था।
- ये प्रशासनिक भेदभाव, धार्मिक नीतियों के साथ मिलकर, सिपाहियों को अलग-थलग कर दिया, जिससे वे विद्रोह में एक केंद्रीय शक्ति बन गए।
समकालीन और विद्वानों की राय
- डब्ल्यू.एच. रसेल, एक ब्रिटिश पत्रकार, ने मूल निवासियों की नाराजगी की गहराई को नोट किया: “आंखों की भाषा सब कुछ कहती है। भय भी नहीं बचा—केवल नापसंद और घृणा।”
- बेंजामिन डिज़राइली ने ब्रिटिश संसद (1857) में कहा: “साम्राज्य केवल ग्रीस लगे कारतूसों के कारण नहीं गिरते… गहरे कारण काम पर हैं।”
- सावरकर ने बाद में विद्रोह को “धर्म और देश” को धार्मिक और सांस्कृतिक विनाश से बचाने के लिए एक हिंदू-मुस्लिम एकीकृत प्रतिक्रिया के रूप में व्याख्या किया।
प्रमुख केंद्र: दिल्ली (बहादुर शाह ज़फर), कानपुर (नाना साहब), झांसी (रानी लक्ष्मीबाई), लखनऊ (बेगम हज़रत महल)
1857 के विद्रोह के प्रमुख केंद्र और उनका नेतृत्व
दिल्ली – बहादुर शाह ज़फर
- रणनीतिक भूमिका: दिल्ली विद्रोह का प्रतीकात्मक और राजनीतिक हृदय था।
- नेतृत्व:
- बहादुर शाह द्वितीय (ज़फर), अंतिम मुगल सम्राट, को मेरठ के सिपाहियों द्वारा हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया गया था।
- हालांकि वृद्ध और वास्तविक शक्ति के बिना, उनके नाम का विद्रोही बलों को एकजुट करने के लिए जबरदस्त प्रतीकात्मक महत्व था।
- बख्त खान, बरेली के एक पूर्व सूबेदार, ने जुलाई 1857 के बाद दिल्ली में सैन्य अभियानों की वास्तविक कमान संभाली और एक प्रशासन न्यायालय की स्थापना की, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों प्रतिनिधि शामिल थे।
- महत्व:
- बहादुर शाह को सम्राट घोषित करने से विद्रोह के लिए एक अखिल भारतीय पहचान स्थापित करने में मदद मिली।
- दिल्ली विद्रोह का nerve centre बन गया, और 20 सितंबर 1857 को इसका पतन एक निर्णायक मोड़ था।
- परिणाम:
- भयंकर लड़ाई के बाद दिल्ली को फिर से कब्जा कर लिया गया; बहादुर शाह को गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया और रंगून निर्वासित कर दिया गया; उनके बेटों को कैप्टन हडसन ने मार डाला।
कानपुर – नाना साहब
- नेतृत्व:
- नाना साहब, पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र, को अंग्रेजों द्वारा पेंशन से वंचित कर दिया गया था, जो एक प्रमुख व्यक्तिगत और राजनीतिक शिकायत बन गई।
- उन्होंने खुद को पेशवा घोषित किया और कानपुर में अपना शासन स्थापित किया, जबकि बहादुर शाह ज़फर को सम्राट के रूप में स्वीकार किया।
- उन्हें उनके सेनापति और एक दुर्जेय गुरिल्ला रणनीतिकार तात्या टोपे का समर्थन प्राप्त था।
- प्रमुख घटनाएँ:
- प्रारंभिक ब्रिटिश सेनाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन उनके evacuation के दौरान, बिबीघर नरसंहार हुआ, जिसमें कई ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों को मार डाला गया (एक अत्यधिक विवादास्पद प्रकरण)।
- तात्या टोपे ने 1859 में हार के बाद नाना साहब के नेपाल भाग जाने के बाद भी प्रतिरोध जारी रखा।
- महत्व:
- कानपुर प्रकरण विद्रोह के सबसे खूनी प्रकरणों में से एक था, जिसका ब्रिटिश मीडिया द्वारा प्रतिशोध को सही ठहराने के लिए भारी उपयोग किया गया।
- नागरिक और सैन्य पंखों के बीच प्रभावी समन्वय दिखाया।
झांसी – रानी लक्ष्मीबाई
- पृष्ठभूमि: व्यपगत के सिद्धांत के बाद, लॉर्ड डलहौजी ने 1854 में झांसी का विलय कर लिया, रानी लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र के दावे को खारिज कर दिया।
- नेतृत्व:
- शुरुआत में हिचकिचाते हुए, विद्रोह शुरू होने के बाद वह एक केंद्रीय व्यक्ति बन गईं।
- अपनी अद्वितीय बहादुरी और सैन्य रणनीति के लिए जानी जाती थीं, उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अपनी सेना का नेतृत्व किया और तात्या टोपे के साथ गठबंधन बनाया।
- घटनाएँ:
- झांसी पर सर ह्यू रोज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेनाओं ने हमला किया।
- रानी लक्ष्मीबाई का निधन ग्वालियर के युद्ध (जून 1858) में हुआ, जब वह बहादुरी से disguised रूप में लड़ रही थीं।
- महत्व:
- औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ महिला-नेतृत्व वाले प्रतिरोध का प्रतीक।
- उनकी शहादत ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता का एक राष्ट्रीय प्रतीक बना दिया।
लखनऊ – बेगम हज़रत महल
- पृष्ठभूमि: अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह के “कुशासन” का हवाला देते हुए 1856 में अवध का विलय कर लिया। बेगम हज़रत महल, उनकी पत्नी, ने राजनीतिक नेतृत्व संभाला और अपने बेटे बिरजिस क़द्र को अवध का नवाब घोषित किया।
- नेतृत्व:
- उन्होंने एक प्रभावी विद्रोही सरकार बनाई और उन्हें फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह शाह, एक गतिशील सैन्य नेता, का समर्थन प्राप्त था।
- घटनाएँ:
- लखनऊ में ब्रिटिश रेजीडेंसी कई महीनों तक घेराबंदी में रही।
- प्रारंभिक जीत के बाद, शहर को सर कॉलिन कैंपबेल के तहत अंग्रेजों द्वारा फिर से कब्जा कर लिया गया।
- परिणाम:
- बेगम हज़रत महल नेपाल भाग गईं।
- महत्व:
- सबसे बड़े और सबसे संगठित शहरी प्रतिरोध को चिह्नित किया।
- अवध में मुस्लिम-नेतृत्व वाले विरोध को उजागर किया और विद्रोह में धार्मिक और राष्ट्रवादी रंग जोड़ा।
त्वरित पुनरीक्षण के लिए सारांश तालिका
केंद्र | नेता/नेतागण | महत्व | परिणाम |
दिल्ली | बहादुर शाह ज़फर, बख्त खान | राजनीतिक-प्रतीकात्मक हृदय, एकजुट करने वाला व्यक्ति | अंग्रेजों द्वारा पुनः कब्जा, ज़फर निर्वासित |
कानपुर | नाना साहब, तात्या टोपे | भयंकर लड़ाई, ब्रिटिश नरसंहार, पेशवा दावा | पराजित, नाना नेपाल भाग गए |
झांसी | रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे | युद्ध कौशल, महिला-नेतृत्व वाला प्रतिरोध | युद्ध में निधन, शहर खो गया |
लखनऊ | बेगम हज़रत महल, मौलवी अहमदुल्लाह | लंबी घेराबंदी, अवध का जन लामबंदी | पराजित, बेगम नेपाल भाग गईं |
ब्रिटिश द्वारा 1857 के विद्रोह का दमन: जनरल हैवलॉक और कॉलिन कैंपबेल की भूमिका
ब्रिटिश दमन रणनीति की पृष्ठभूमि
- मेरठ (10 मई 1857) में विद्रोह के फैलने और दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और झांसी जैसे प्रमुख केंद्रों में इसके प्रसार के बाद, ब्रिटिश ने इन प्रमुख नोड्स को तेजी से पुनः प्राप्त करने का लक्ष्य रखा।
- दमन रणनीति की विशेषता थी:
- तेज और क्रूर सैन्य प्रतिशोध
- प्रमुख विद्रोही गढ़ों पर केंद्रित हमले
- बांटो और राज करो की रणनीति
- वफादार भारतीय रियासतों और रेजिमेंटों (जैसे सिख, गोरखा) पर निर्भरता
जनरल हेनरी हैवलॉक: कानपुर में भूमिका
- नियुक्ति और प्रारंभिक कार्रवाई:
- जून 1857 में इलाहाबाद से एक छोटे लेकिन अनुशासित बल के साथ भेजा गया।
- कानपुर को राहत देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो नाना साहब के नियंत्रण में आ गया था।
- सैन्य संलग्नता:
- फतेहपुर, ओंग और पांडू नादी में विद्रोही बलों को हराया, superior tactical planning का प्रदर्शन किया।
- 17 जुलाई 1857 को कानपुर में प्रवेश किया, लेकिन garrison को पहले ही बिबीघर घटना (ब्रिटिश महिलाओं और बच्चों की हत्या) में massacred पाया।
- महत्व:
- उनकी जीत ने ब्रिटिश मनोबल को फिर से स्थापित करने में मदद की।
- ब्रिटेन में एक राष्ट्रीय नायक बन गए।
- नवंबर 1857 में कुछ ही समय बाद पेचिश से निधन हो गया।
- मूल्यांकन:
- हालांकि एक कुशल tactician, उनका बल sustain operations के लिए बहुत छोटा था।
- फिर भी, उन्होंने आगे ब्रिटिश एकीकरण के लिए आधार तैयार किया।
सर कॉलिन कैंपबेल: कमांडर-इन-चीफ और रणनीतिक नेतृत्व
- नियुक्ति:
- विद्रोह के दौरान भारत में ब्रिटिश सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ के रूप में नियुक्त किया गया।
- सूक्ष्म योजना और methodical execution के लिए जाने जाते थे।
- मुख्य संचालन:
- लखनऊ की पहली राहत (नवंबर 1857):
- रेजीडेंसी से घिरे ब्रिटिश नागरिकों और सैनिकों को बचाया।
- high-casualty frontal assaults से बचते हुए अनुशासित सैन्य maneuvers का इस्तेमाल किया।
- लखनऊ की दूसरी राहत और पुनः कब्जा (मार्च 1858):
- सर जेम्स आउट्राम और जनरल हैवलॉक के उत्तराधिकारियों के साथ मिलकर, एक full-scale assault शुरू किया और लखनऊ पर पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लिया।
- भारी तोपखाने और इंजीनियरिंग कोर का उपयोग करके एक व्यवस्थित अभियान का पालन किया।
- अंतिम दमन:
- मध्य भारत में विद्रोही बलों को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, ग्वालियर के सिंधिया जैसे वफादार देशी शासकों के साथ समन्वय स्थापित किया।
- यह सुनिश्चित किया कि तात्या टोपे जैसे विद्रोहियों का पीछा किया जाए और अंततः उन्हें फांसी दी जाए।
- रणनीतिक योगदान:
- logistical शक्ति और व्यवस्थित घेराबंदी युद्ध पर ध्यान केंद्रित किया।
- overextension से बचने पर जोर दिया—ब्रिटेन से reinforcements पर भारी निर्भरता।
ब्रिटिश द्वारा उपयोग की गई दमनकारी रणनीति
- उत्तरी भारत में मार्शल लॉ लागू किया गया।
- सार्वजनिक निष्पादन (उदाहरण के लिए, तोपों से विद्रोहियों को उड़ाना)।
- विद्रोहियों की सहायता करने वाले संदिग्ध पूरे गांवों का विनाश।
- भारतीय सहयोगियों का उपयोग: पंजाब सैनिक, गोरखा, और हैदराबाद, पटियाला जैसे रियासतें।
- लक्षित प्रतिशोध: सितंबर 1857 में दिल्ली के पतन के बाद नरसंहार, जिसमें बहादुर शाह ज़फर के बेटों की हत्या भी शामिल है।
अंतिम चरण और एकीकरण (1858-59)
- दिल्ली को सितंबर 1857 में पुनः कब्जा कर लिया गया।
- कानपुर, लखनऊ और झांसी को 1858 के मध्य तक शांत कर दिया गया।
- तात्या टोपे को अप्रैल 1859 में पकड़ा और फांसी दी गई।
- जुलाई 1859 तक, विद्रोह को आधिकारिक तौर पर समाप्त घोषित कर दिया गया।
1857 के विद्रोह का ब्रिटिश दमन: समयरेखा
तिथि | घटना | प्रमुख व्यक्ति | विवरण |
10 मई 1857 | मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ | – | ग्रीस लगे कारतूस के मुद्दे से शुरू हुआ |
20 मई 1857 | कानपुर विद्रोही नियंत्रण में | नाना साहब | पेशवा घोषित किया और बहादुर शाह को सम्राट के रूप में मान्यता दी |
जून 1857 | हैवलॉक इलाहाबाद से आगे बढ़ता है | जनरल हेनरी हैवलॉक | कानपुर को पुनः प्राप्त करने के लिए भेजा गया, फतेहपुर और ओंग में विद्रोहियों को हराया |
17 जुलाई 1857 | ब्रिटिश कानपुर में पुनः प्रवेश करते हैं | जनरल हैवलॉक | बिबीघर नरसंहार पाया; मनोबल हिला हुआ था |
जुलाई-अगस्त 1857 | लखनऊ को राहत देने का प्रयास | – | अपर्याप्त reinforcements के कारण प्रारंभिक प्रयास विफल |
सितंबर 1857 | दिल्ली को ब्रिटिश द्वारा पुनः कब्जा किया | जनरल जॉन निकोलसन, हडसन | बहादुर शाह ज़फर को गिरफ्तार किया; उनके बेटों को फांसी दी गई |
25 सितंबर 1857 | लखनऊ की पहली राहत | जनरल हैवलॉक, सर जेम्स आउट्राम | रेजीडेंसी में घुस गए, लेकिन घेराबंदी जारी रही |
नवंबर 1857 | सर कॉलिन कैंपबेल कार्रवाई में आते हैं | सर कॉलिन कैंपबेल | भारत के कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किए गए |
17 नवंबर 1857 | लखनऊ की दूसरी राहत | सर कॉलिन कैंपबेल | ब्रिटिश नागरिकों और सैनिकों को सफलतापूर्वक बाहर निकाला |
मार्च 1858 | लखनऊ पर पुनः कब्जा | सर कॉलिन कैंपबेल | तोपखाने और वफादार बलों का उपयोग करके व्यवस्थित सैन्य अभियान |
अप्रैल 1858 | रानी लक्ष्मीबाई का निधन | – | ग्वालियर में युद्ध में निधन; ब्रिटिश अग्रिम तेज हुआ |
अप्रैल 1859 | तात्या टोपे को पकड़ा और फांसी दी गई | – | एक स्थानीय ज़मींदार द्वारा धोखा दिया गया; 15 अप्रैल 1859 को फांसी दी गई |
जुलाई 1859 | विद्रोह की आधिकारिक समाप्ति घोषित | – | उत्तरी भारत में ब्रिटिश शासन पूरी तरह से पुनः स्थापित |
रानी की घोषणा 1858
- जारी की गई: 1 नवंबर 1858
- किसके द्वारा: महारानी विक्टोरिया (लॉर्ड कैनिंग द्वारा इलाहाबाद में सार्वजनिक रूप से पढ़ी गई)
- संदर्भ: 1857 के विद्रोह के बाद, ब्रिटिश क्राउन ने ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन औपचारिक रूप से अपने हाथ में ले लिया। यह घोषणा इस संक्रमण को चिह्नित करने और भारतीय भावना को शांत करने के लिए थी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- भारत सरकार अधिनियम 1858 ने ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया और प्रशासनिक नियंत्रण ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दिया। यह घोषणा उस हस्तांतरण की औपचारिक घोषणा थी और इसका उद्देश्य भारतीय राजकुमारों और विषयों को जीतना था, खासकर traumatic विद्रोह के बाद।
घोषणा के प्रमुख प्रावधान
- कंपनी शासन का उन्मूलन:
- घोषित किया गया कि रानी अब भारत का सीधा शासन ग्रहण करेंगी।
- ईस्ट इंडिया कंपनी को समाप्त कर दिया गया।
- धर्म में अहस्तक्षेप:
- “हम अपने किसी भी विषय पर अपनी मान्यताओं को थोपने के अधिकार और इच्छा का त्याग करते हैं।”
- धार्मिक मामलों में सहिष्णुता और neutrality का वादा किया।
- कंपनी शासन के तहत जबरन ईसाईकरण की धारणा को उलटने का लक्ष्य था।
- कानून के तहत समान व्यवहार:
- भारतीयों और ब्रिटिश विषयों के लिए समान और निष्पक्ष कानूनी सुरक्षा।
- जाति, जाति, धर्म या जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं।
- यह कानून के समक्ष समानता का प्रारंभिक अभिव्यक्ति था, हालांकि पूरी तरह से महसूस नहीं किया गया।
- संधियों और गठबंधनों का सम्मान:
- रियासतों के साथ पिछली संधियों का सम्मान किया जाएगा।
- भविष्य के विलय को त्याग दिया गया।
- व्यपगत के सिद्धांत की समाप्ति का संकेत दिया और देशी शासकों से वफादारी मांगी।
- भूस्वामियों को आश्वासन:
- वफादार विषयों के भूमि अधिकारों का सम्मान करने का वादा किया।
- जमींदारों और तालुकदारों को शांत करने का इरादा था, जिनमें से कई विद्रोहियों के साथ थे।
- प्रशासनिक नियुक्तियाँ:
- भारतीयों को सार्वजनिक सेवाओं में नियुक्त किया जा सकता था, योग्यता के अधीन।
- हालांकि अस्पष्ट, यह सेवाओं के भारतीयकरण की दिशा में एक प्रारंभिक कदम था।
- विद्रोहियों को माफी (हत्यारों को छोड़कर):
- विद्रोह में भाग लेने वालों को सामान्य माफी की पेशकश की गई, उन लोगों को छोड़कर जो हत्या या अत्याचार के दोषी पाए गए थे।
- यह मध्यम विद्रोहियों को शांत करने और आगे प्रतिरोध को रोकने के लिए था।
- विकास के प्रति प्रतिबद्धता:
- भारतीय विषयों के कल्याण, समृद्धि और प्रगति का वादा किया।
- क्राउन के ‘सभ्यता’ और शासन में ‘सुधार’ के इरादे को चिह्नित किया, उदार साम्राज्यवाद के अनुरूप।
महत्व और प्रभाव
- राजनीतिक महत्व:
- ब्रिटिश क्राउन शासन (1858-1947) की शुरुआत को चिह्नित किया।
- वायसरायल्टी के युग की शुरुआत की – लॉर्ड कैनिंग भारत के पहले वायसराय बने।
- व्यपगत का सिद्धांत आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया, जिससे देशी राज्यों को ब्रिटिश आधिपत्य के तहत अपनी संप्रभुता का आश्वासन मिला।
- प्रशासनिक प्रभाव:
- लंदन में 15 सदस्यीय परिषद के साथ भारत के लिए राज्य सचिव का परिचय।
- सिविल सेवाओं और प्रशासन में सुधार का वादा किया गया था, लेकिन दशकों तक ब्रिटिश elites तक ही सीमित रहे।
- सामाजिक प्रभाव:
- धार्मिक neutrality clause का उद्देश्य भारतीयों के साथ विश्वास का पुनर्निर्माण करना था, खासकर मिशनरी उत्साह से उत्पन्न आशंकाओं के बाद।
- भूमि और संपत्ति के आश्वासनों ने प्रभावशाली जमींदारों को शांत किया।
आलोचना और सीमाएँ
- महान वादों के बावजूद, नियुक्तियों और व्यवहार में नस्लीय भेदभाव जारी रहा।
- प्रशासन में भारतीय प्रतिनिधित्व न्यूनतम रहा।
- शासन में वास्तविक भागीदारी भारतीय परिषद अधिनियम 1861 तक अस्वीकार कर दी गई थी, और तब भी सीमित रूप में।
- वादा की गई धार्मिक neutrality का चुनिंदा उपयोग किया गया था, और बांटो और राज करो की नीति बाद में मजबूत हुई।
1857 का विद्रोह: स्वतंत्रता का पहला युद्ध या सिपाही विद्रोह?
विद्रोह की पृष्ठभूमि
- तत्काल कारण: ग्रीस लगे कारतूस (गाय और सूअर की चर्बी से बने) के साथ एनफील्ड राइफल का परिचय हिंदू और मुस्लिम दोनों धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता था।
- अंतर्निहित कारण:
- आर्थिक शोषण (उदाहरण के लिए, दमनकारी भू-राजस्व प्रणालियाँ—स्थायी, रैयतवाड़ी, महालवाड़ी)।
- डलहौजी के व्यपगत के सिद्धांत के तहत राजनीतिक विलय।
- सामाजिक और सांस्कृतिक हस्तक्षेप (मिशनरी गतिविधि, पश्चिमीकरण के प्रयास)।
- खराब वेतन, नस्लीय भेदभाव और जबरन ईसाईकरण के डर के कारण सिपाहियों में असंतोष।
- प्रशासन से मध्यम और उच्च भारतीय वर्गों का अलगाव।
विद्रोह की प्रकृति: विद्रोह या स्वतंत्रता का युद्ध?
- ब्रिटिश आधिकारिक दृष्टिकोण: सिपाही विद्रोह
- सैन्य insubordination के रूप में देखा गया, विशेष रूप से बंगाल सेना द्वारा।
- जॉन लॉरेंस और लॉर्ड कैनिंग जैसे ब्रिटिश अधिकारियों ने इसे सीमित अशांति करार दिया।
- ब्रिटिश का ध्यान सैन्य अनुशासन के टूटने पर था, न कि राजनीतिक विद्रोह पर।
- राष्ट्रवादी इतिहासकारों का दृष्टिकोण: स्वतंत्रता का पहला युद्ध
- विनायक दामोदर सावरकर (1909): इसे “भारतीय स्वतंत्रता का पहला युद्ध” कहा।
- उन्होंने इसके अखिल भारतीय चरित्र, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एकता और देशभक्ति की प्रेरणाओं पर प्रकाश डाला।
- एस.बी. चौधरी और तलमिज़ खालदुन द्वारा समर्थित, जिन्होंने इसे औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ एक लोकप्रिय uprising के रूप में देखा, जो धार्मिक और क्षेत्रीय सीमाओं को पार करता था।
- मार्क्सवादी और संशोधनवादी दृष्टिकोण:
- आर.सी. मजूमदार ने तर्क दिया कि यह न तो राष्ट्रीय था और न ही स्वतंत्रता का युद्ध, बल्कि विविध प्रेरणाओं के साथ स्थानीय विद्रोहों की एक श्रृंखला थी।
- बिपिन चंद्र ने नेतृत्व की सामंती और backward-looking प्रकृति (उदाहरण के लिए, बहादुर शाह, झांसी की रानी, नाना साहब) और आधुनिक विचारधारा या राष्ट्रीय एकता की कमी पर जोर दिया।
दायरा और संगठन
- विद्रोह उत्तरी और मध्य भारत में फैल गया: दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, झांसी, आरा।
- इसमें नागरिक और सैन्य दोनों की भागीदारी शामिल थी—सिपाही, किसान, जमींदार, कारीगर।
- प्रतिरोध के प्रतीक: लाल कमल, विद्रोह को समन्वित करने के लिए वितरित चपातियां।
असफलता के कारण
- अखिल भारतीय एकता का अभाव: विद्रोह बड़े पैमाने पर गंगा के मैदान तक सीमित था; दक्षिण और पूर्व निष्क्रिय रहे।
- सामान्य विचारधारा या दृष्टिकोण का अभाव: ब्रिटिश के बाद के शासन के लिए एक सुसंगत योजना का अभाव।
- आधुनिक नेतृत्व का अभाव: रूढ़िवादी, सामंती हितों का प्रभुत्व।
- ब्रिटिश सैन्य श्रेष्ठता: बेहतर उपकरण, reinforcements, और रणनीतिक कमान।
- विद्रोही नेताओं के बीच फूट: प्रतिद्वंद्विता, विश्वास की कमी (उदाहरण के लिए, बेगम हज़रत महल बनाम मौलवी अहमदुल्लाह)।
- भारतीय राजकुमारों और शिक्षित वर्गों की neutrality या समर्थन: कई लोग ब्रिटिश शासन की तुलना में मुगल या मराठा बहाली से अधिक डरते थे।
परिणाम और प्रभाव
- कंपनी शासन का अंत: भारत सरकार अधिनियम 1858 ने ब्रिटिश क्राउन को सत्ता हस्तांतरित कर दी।
- सेना का पुनर्गठन: यूरोपीय से भारतीय सैनिकों का अनुपात बढ़ाया गया; तोपखाना ब्रिटिश हाथों में रखा गया।
- बांटो और राज करो: सांप्रदायिक, जाति और क्षेत्रीय विभाजन को संस्थागत बनाया गया।
- राजकुमारों के प्रति नीति में बदलाव: व्यपगत का सिद्धांत छोड़ दिया गया; देशी राजकुमारों को सह-opted किया गया।
- सामाजिक प्रतिध्वनि: उभरते भारतीय राष्ट्रवाद ने आधुनिक, संगठित प्रतिरोध की आवश्यकता महसूस की—अंततः भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व किया।
निष्कर्ष:
- ब्रिटिशों ने अंततः 1857 के विद्रोह को निर्मम सैन्य जवाबी कार्रवाई और विद्रोही गढ़ों पर केंद्रित हमलों के माध्यम से दबा दिया। इस दमन में प्रमुख व्यक्ति कानपुर में जनरल हेनरी हैवलॉक और लखनऊ पर फिर से कब्जा करने वाली सेना के कमांडर-इन-चीफ सर कॉलिन कैंपबेल थे। विद्रोह की हार के परिणामस्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन औपचारिक रूप से समाप्त हो गया और 1858 की रानी की उद्घोषणा के माध्यम से प्रशासनिक नियंत्रण ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दिया गया। इस उद्घोषणा ने कंपनी को समाप्त कर दिया, धर्म में अहस्तक्षेप का वादा किया, और भविष्य के विलय को त्याग दिया, जिससे व्यपगत के सिद्धांत का अंत हो गया। अपने दमन के बावजूद, विद्रोह की विरासत ने उभरते भारतीय राष्ट्रवाद को प्रभावित किया, संगठित प्रतिरोध की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)
1. 1857 के विद्रोह के तात्कालिक कारण के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
पैटर्न 1853 एनफील्ड राइफल-मस्केट को 1856-57 में भारतीय सैनिकों के लिए पेश किया गया था।
ग्रीस लगे कारतूस कथित तौर पर गाय की चर्बी और सूअर की चर्बी से बने थे।
कारतूस को दांतों से काटने का कार्य हिंदू और मुस्लिम दोनों सिपाहियों के धार्मिक आहार कानूनों का सीधे तौर पर उल्लंघन करता था।
जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट एक्ट, 1856, जिसके तहत सिपाहियों को विदेशों में सेवा करने की आवश्यकता थी, तात्कालिक ट्रिगर का हिस्सा था।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-से सही हैं?
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
सही उत्तर: (a) केवल 1, 2 और 3
स्पष्टीकरण: जनरल सर्विस एनलिस्टमेंट एक्ट, 1856, बढ़ते संदेह का एक कारक था, लेकिन तात्कालिक ट्रिगर विशेष रूप से एनफील्ड राइफल और उसके ग्रीस लगे कारतूस थे। अधिनियम स्वयं एक दीर्घकालिक शिकायत थी, न कि कारतूसों की तरह एकल तात्कालिक ट्रिगर।
2. लॉर्ड डलहौजी द्वारा व्यपगत के सिद्धांत के तहत निम्नलिखित में से किन रियासतों का विलय किया गया था?
सतारा
झांसी
अवध
नागपुर
नीचे दिए गए कोड का उपयोग करके सही उत्तर चुनें:
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 2, 3 और 4
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) 1, 2, 3 और 4
सही उत्तर: (c) केवल 1, 2 और 4
स्पष्टीकरण: अवध का विलय “कुशासन” के आधार पर किया गया था, न कि व्यपगत के सिद्धांत के तहत। सतारा, झांसी और नागपुर का विलय व्यपगत के सिद्धांत के तहत किया गया था।
3. 1857 के विद्रोह के आर्थिक कारणों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार करें:
स्थायी बंदोबस्त के तहत, जमींदारों को भूमि पर स्वामित्व अधिकार दिए गए थे।
रैयतवाड़ी बंदोबस्त में, किसान सीधे अंग्रेजों से भू-राजस्व के लिए व्यवहार करते थे।
भारतीय सिपाहियों को ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में अधिक वेतन मिलता था।
अधिकांश सिपाही कृषि पृष्ठभूमि से आते थे और उनके परिवार बढ़े हुए कराधान के कारण पीड़ित थे।
ऊपर दिए गए कथनों में से कौन-से सही हैं?
(a) केवल 1, 2 और 3
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 2, 3 और 4
(d) केवल 1, 3 और 4
सही उत्तर: (b) केवल 1, 2 और 4
स्पष्टीकरण: भारतीय सिपाहियों को ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में काफी कम वेतन (प्रति माह 7-9 रुपये) मिलता था, और ब्रिटिश सैनिकों के विपरीत उनके खर्च कवर नहीं किए जाते थे।
4. 1857 के विद्रोह के निम्नलिखित प्रमुख केंद्रों को उनके संबंधित नेताओं से सुमेलित करें:
सूची-I (केंद्र) सूची-II (नेता)
A. दिल्ली 1. नाना साहब
B. कानपुर 2. रानी लक्ष्मीबाई
C. झांसी 3. बहादुर शाह ज़फर
D. लखनऊ 4. बेगम हज़रत महल
नीचे दिए गए कोड का उपयोग करके सही मिलान चुनें:
(a) A-3, B-1, C-2, D-4
(b) A-1, B-3, C-4, D-2
(c) A-3, B-2, C-1, D-4
(d) A-4, B-1, C-2, D-3
सही उत्तर: (a) A-3, B-1, C-2, D-4
स्पष्टीकरण:
दिल्ली: बहादुर शाह ज़फर (और सैन्य अभियानों के लिए बख्त खान)
कानपुर: नाना साहब
झांसी: रानी लक्ष्मीबाई
लखनऊ: बेगम हज़रत महल